Daughter’s property rights: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसे मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि बेटियों को हर परिस्थिति में पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार दिए गए हैं, लेकिन इस नए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है कि यदि बेटी खुद पिता से रिश्ता रखने से इंकार कर दे तो वह उनकी संपत्ति पर दावा नहीं कर सकती। यह फैसला अब एक नई दिशा में बहस शुरू कर रहा है कि अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य भी जरूरी हैं।
कानून में बराबरी लेकिन रिश्ते की शर्त
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में बेटा और बेटी दोनों को समान रूप से पिता की संपत्ति में अधिकार दिया गया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बताया कि सिर्फ कानून में अधिकार होना पर्याप्त नहीं, बल्कि उस रिश्ते को निभाना भी जरूरी है। अदालत का मानना है कि अगर बेटी बालिग है और वह पिता से न कोई संबंध रखना चाहती है और न ही कोई जिम्मेदारी साझा करती है, तो वह उनकी संपत्ति पर दावा भी नहीं कर सकती। इससे यह सवाल भी उठता है कि क्या संपत्ति का अधिकार केवल खून के रिश्ते से तय होगा या भावनात्मक जुड़ाव भी जरूरी है।
गुजारा भत्ते की वजह से बदला मामला
इस मामले में पत्नी अपने पति से अलग रह रही थी और गुजारा भत्ते के रूप में प्रति माह ₹8000 ले रही थी। साथ ही वह अपने भाई के साथ रह रही थी और अपने पिता से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहती थी। अदालत ने इस स्थिति का संज्ञान लेते हुए कहा कि जब बेटी खुद अपने पिता को जीवन से अलग कर चुकी है, तो फिर वह उनकी संपत्ति में हिस्सा मांगने की हकदार नहीं रह जाती। इस पहलू को न्यायपालिका ने बेहद स्पष्ट तरीके से रखा, जिससे यह संदेश गया कि अधिकार तभी तक है जब तक रिश्ता बना रहे।
पति और पत्नी के बीच तलाक की कानूनी प्रक्रिया
यह विवाद तब शुरू हुआ जब पति ने जिला अदालत में तलाक की अर्जी लगाई। वहां फैसला पति के पक्ष में आया, लेकिन पत्नी ने उसे हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने तलाक की अर्जी खारिज कर दी जिसके बाद पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को वैध माना और इस पूरे प्रकरण के दौरान संपत्ति के अधिकारों को लेकर स्पष्ट टिप्पणी दी। अदालत ने कहा कि अगर बेटी ने खुद अपने पिता को रिश्ते से बाहर कर दिया है तो संपत्ति पर उसके अधिकार को मान्यता नहीं दी जा सकती।
पिता से रिश्ता नहीं, तो अधिकार भी नहीं
इस मामले में बेटी की ओर से अदालत में यह स्पष्ट किया गया कि वह अपने पिता से कोई संपर्क नहीं रखना चाहती और न ही उनसे किसी प्रकार की मदद चाहती है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिश्तों में अधिकार और जिम्मेदारी दोनों साथ चलते हैं। अगर कोई बालिग बेटी अपने पिता से पूरी तरह संबंध तोड़ देती है, तो वह उनकी संपत्ति में हिस्सा पाने की हकदार नहीं रह जाती। यह फैसला उन मामलों में मार्गदर्शक बन सकता है जहां कानूनी अधिकार और पारिवारिक संबंधों में टकराव पैदा होता है।
माता-पिता का भी हो चुका था तलाक
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह था कि लड़की के माता-पिता का भी तलाक हो चुका था और वह अपने पिता से अलग रह रही थी। कोर्ट ने माना कि जब माता-पिता का वैवाहिक संबंध समाप्त हो चुका है और बेटी भी पिता से संबंध नहीं रखना चाहती, तो पिता की संपत्ति में हिस्सा मांगना तर्कसंगत नहीं है। इस स्थिति में, अगर माता कोई आर्थिक सहायता देना चाहती है तो वह उनका व्यक्तिगत निर्णय होगा और बेटी उस पर कानूनी रूप से अधिकार नहीं जता सकती।
एकमुश्त भुगतान का विकल्प
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी विकल्प दिया कि पति यदि चाहे तो सभी कानूनी दावों की राशि एकमुश्त अपनी पत्नी को दे सकता है ताकि आगे कोई विवाद न रहे। इस विकल्प से पति को राहत मिल सकती है और महिला को एक बार में जरूरी वित्तीय सहायता भी मिल जाती है। हालांकि, इस एकमुश्त भुगतान के बाद महिला पिता की संपत्ति से किसी भी तरह की आर्थिक मदद मांगने की पात्र नहीं रहेगी। यह फैसला संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है कि संपत्ति पर अधिकार तभी दिया जाए जब संबंध भी वास्तविक हों।
कानूनी और सामाजिक दृष्टिकोण का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी बहुत मायने रखता है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या केवल खून का रिश्ता पर्याप्त है या उस रिश्ते को निभाने की जिम्मेदारी भी उतनी ही जरूरी है। यह निर्णय कानून के उस पहलू को उजागर करता है जहां अधिकार सिर्फ कानून की किताब से नहीं बल्कि रिश्तों की व्यवहारिकता से भी तय होते हैं। इससे भविष्य में ऐसे मामलों में एक नई व्याख्या का मार्ग खुल सकता है।
Disclaimer: यह लेख केवल सामान्य सूचना के उद्देश्य से लिखा गया है। किसी कानूनी सलाह के लिए संबंधित अधिवक्ता या न्यायिक सलाहकार से संपर्क करें।